असल में समाज
का साहित्य
से अलगाव
भी साहित्यकारों
से कई
अनचाहे समझौते
करवा रहा
है। आज
अपने अस्तित्व
को बचाए
रखने के
लिए साहित्यकारों
को सत्ता
से जुड़ाव
की शायद
बहुत अधिक
आवश्यकता महसूस
होने लगी
है,इसलिए
आज कुछ
साहित्यकार वहां खड़े है जहाँ
वो साहित्यकार
कम दरबान
ज्यादा नज़र
आते हैं।
समझौता और
टूटन कितनी
अधिक है
इसका भान
मुझे तब
हुआ जब
एक परिचित
साहित्यकार को सत्ता के आगे
शीश झुकाते
देखा कुछ
समय पहले
तक वो
विपक्ष में
बैठे दल
के समर्थक थे, साम्प्रदायिकता को
पानी पी-पीकर कोसते
थे। अब
उनको सत्ता
में बैठे
दल का
गुणगान करते
सुना तो
आश्चर्य होना
स्वाभाविक था। उन्होंने भी मित्र
होने के
नाते कुछ
नहीं छुपाया
बता दिया
कि अपने
प्रदेश में
दो बार
से सत्तारूढ़
दल की
ही सरकार
आ रही
है विपक्ष
की हालत
इतनी खराब
है कि अगली बार भी
आसार नहीं
दिख रहे
अब 15 साल
तक तो
कौन इंतजार
करे इसलिए
सोचा चलो
खुद को
बचाने के
लिए दुश्मन
को ही
खुदा बना
लेते हैं।
आप सोचिये जिन
साहित्यकारों की प्रतिबद्धता का आलम
ये है
तो वो
जब अपने
आकाओं को
खुश करने
के लिए
साहित्य सृजन
करेंगे तो
किस हद
तक गिरेंगे
और किस
हद तक
गिराएंगे। उनकी मज़बूरी ये है
कि किताबें
छपती तो
बहुत हैं
पर बिकती
बहुत कम
हैं और
आज के
दौर में
साहित्यकार होने के अपने दंभ
को जीवित
रखने के
लिए जो
साधन चाहिए
उनमे से
अधिकांश पर
सरकार काबिज़
है। इसलिए
लोग राजनैतिक
संरक्षण पाने
की होड़
में लगे
हैं और
राजनीति मुफ्त
में भला
क्यों कुछ
देने लगी
वो पहली
शर्त यही
रखती
कि तुम्हारी
आवाज़ को
बस मेरे
हुस्न की
तारीफ में
डुबाए रखना
बाकी हर
इनाम से
तुम्हें नवाजना
मेरी ज़िम्मेदारी
रही। बस
तो साहेब
कई कलमकार
ग़ुलाम हो
गए कलम
भी ग़ुलाम
हो गयी
और जो
कुछ लिखा
वो हुज़ूर
की तारीफ
का अफसाना
है। जो
लोग ये
सब कुछ
नहीं कर
पाए वो
आज हाशिये
पर हैं
या फिर
साहित्य के
साथ उनका
रिश्ता संकुचित
होता चला
गया। एक
बड़ा नुकसान
ये भी
हुआ है
कि यह
स्थिति नए
साहित्यकारों को भी हतोत्साहित कर
रही है। समाज का साहित्य
से कुछ
लेना-देना
हो सकता
है इसकी
कोशिश करने
वाले धीरे-धीरे कम
होते चले
जा रहे
हैं और
किसी बीरबल
में न
तो इतना
यकीन है
और न
इतनी हिम्मत
कि वो
अकबर से
कह सके
कि जहाँपनाह
अगर आपकी
पनाह में
न होता
तो मैं
अपनी सल्तनत
का जहाँपनाह
होता।