कुछ दिनों पहले तक
जो धूप खेलती थी
सर्दियों के आँगन में
फिर जिसका
रूमानी रिश्ता था
बसंत के साथ
वही धूप आ बैठी
गर्मियों के बाज़ार में
न कोई खरीददार है
न कोई इज्ज़त
लोग निकलते हैं
उससे ज़रा बचकर
जिनकी ज़रूरत है
वो भी मिलते हैं
सर और मुंह ढककर
कोई नहीं पूछता कि
हालात कैसे ले आये
किसी नाजों पली को
बाज़ार में
वो जानती है
अब जब मौसम बदलेगा
तो खो जाएगी
वो बादलों में कहीं
फिर नया जन्म भी पायेगी
सर्दियों के आँगन में खेलेगी
बसंत की रूमानियत जगाएगी
लेकिन जानती है कि वो धूप है
अपना नसीब बदल नहीं पायेगी
बादलों में खोने से पहले
गर्मियों के बाज़ार में
तन्हा बहुत बहुत तन्हा
खड़ी कर ही दी जाएगी
अशोक जमनानी