घट - घट में कुंभ : अशोक जमनानी
- उज्जैन से मिलना- जुलना अक्सर होता रहता है। महाकाल की नगरी है, दुआ सलाम के लिये जाना अच्छा लगता है। उज्जैन के लोग भी भले लगते हैं। घट- घट में महाकाल की महिमा गूंजती है। लेकिन सिंहस्थ के मौके पर लोगों से मिला तो लगा कि इस बार घट-घट में कुंभ राग भी गूंज रहा है। उज्जैन का कुम्भ सिंहस्थ भी कहलाता है क्योंकि गुरु सिंहस्थ होते हैं। वैसे गुरु सिंहस्थ हों या न हों मैं तो जब जब उज्जैन जाता हूं तो गुरु स्वर देवास से ही गूंजने लगते हैं , उज्जैन से ठीक पहले देवास आता है, कुमार गन्धर्व का नगर जो उनके गाये गीतों से आज भी वाबस्ता है। वहां से गुज़रा तो उनका गया भजन " गुरु जी जहां बैठूं वहां छाया दी.... " कहने लगा कि इस अमर आवाज़ की स्मृति-छाया में कुछ पल बिताओ ! कैसे इंकार करता ? कुछ वक़्त रुका रहा लेकिन उज्जैन पहुंचा तो वहां सिंह में विराजे हैं गुरु पर दहाड़ रहे थे सूर्य। प्रखर धूप से शहर पसीना-पसीना हो रहा था पर भरी दोपहरी में रामघाट जाते हुए जन सैलाब के पांव आस्था की जिस चेतना से जुड़े थे उसमें कोई धूप, कहाँ धूप लगती है ! उस आस्था को निहारता- निहारता रामघाट पहुंचा तो घाट पर जैसे देश के कोने- कोने से आयी आस्था का सौंदर्य यत्र-तत्र सर्वत्र था। पर इस जन प्रवाह में सर्वाधिक सुखद था युवा वर्ग का तरंगित उत्साह जो घाट पर भी था और क्षिप्रा की गोद में भी खिलखिला रहा था।
रामघाट पर स्नान करते युवाओं में भी वैविध्य था लेकिन एक अद्भुत समानता भी थी। डुबकी लगाते वक़्त अधिकांश युवा अपने किसी मित्र को अपना मोबाइल थमाकर तस्वीर लेने के लिए कह रहे थे और जल धारा से बाहर आने पर उस तस्वीर को शेयर करना अधिकांश का पहला काम था। कुछ तो बदन पोंछने से पहले ही संदेश लिखने में तल्लीन थे। मैंने सन्देश देखे नहीं पर जानता हूं कि इन दिनों चलन में है " एट उज्जैन इंजोयिंग कुम्भ " . आश्चर्य की बात यह थी कि तस्वीरें खिंचवाने में लड़कियां भी पीछे नहीं थीं। बस फर्क इतना था कि लड़के केवल अपनी तस्वीर खिंचवाना चाहते थे और लड़कियां समूह में तस्वीर खिंचवा रही थीं। अवसर कुम्भ का था। धर्म के महा उत्सव का। पर यह देखना कितना सुखद कि धर्म के क्षेत्र में खड़ा युवा तकनीकी की नवीनता का भी आनंद ले रहा है। मुझे लगा कि शायद जो भी धर्म नवीनता के विवेकी स्वरुप को स्वीकार करने की हिम्मत दिखाता है उस धर्म का यौवन अमर हो जाता है। तस्वीर खिंचवाते युवाओं को छोड़कर आगे बढ़ा तो छत्तीसगढ़ से आये युवा भाई- बहन सुमित और हर्षा से मुलाकात हुई। चौबीस- पच्चीस वर्ष की आयु , दोनों दिखने में आकर्षक, पढ़े-लिखे और सम्पन्न परिवार के सदस्य। दोनों पिछले दस दिनों से अपने आध्यात्मिक गुरु के पास रहकर अन्न क्षेत्र में सेवा कर रहे । उनसे पूछा कि सब कुछ होने के बाद भी यहां किस चीज़ की तलाश में हो तो उन्होंने कहा यहां बहुत शांति मिल रही है। अनेक महात्माओं के शिविर देखे वहां कई हर्षा और सुमित हैं। सोचता हूँ जवानी, पैसा, रूप, सफलता सब कुछ हो तब भी शांति क्या किसी सेवा, किसी शरणागति ,किसी सिंहस्थ में ही मिलेगी ?
वैसे तो शास्त्र कहते हैं कि कुम्भ स्नान से जन्म जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं लेकिन सिंहस्थ तो महाकाल की नगरी का गौरव है और आध्यात्मिक चिंतन कहता है कि महाकाल काल का भी अतिक्रमण करते हैं इसलिए चेतना केवल पाप पुण्य के आवरण से मुक्त नहीं होती वरन अपने सहज स्वरुप से साक्षात्कार करती हुई शिवोsहम् शिवोsहम् का उद्घोष करती हुई स्वयं शिवत्व धारण करती है .
उसी शिवत्व को नमन करने के लिए रामघाट से महाकाल के मंदिर तक जाते-जाते न जाने कितने दृश्य मन में सहेजे। पर एक बात का आनंद मन में था कि शिव के दर्शन से पहले देह की शुद्धि राम घाट पर हुई। वर्षों तक शैव और वैष्णव के संघर्ष में कुम्भ में हज़ारो लोगों ने प्राण गंवाये । तब साहित्य ने धर्म को नवीनता की चेतना दी और रामचरित मानस के माध्यम से सबसे बड़ा काम किया तुलसी दास जी ने। शैव और वैष्णव की दूरी मिटाती उनकी कृति के उत्तर काण्ड का महत्वपूर्ण पड़ाव है महाकाल का मंदिर। महाकाल को प्रणाम करके आगे बढ़ता हूँ। कुछ साधु संतों से मिलता हूँ कुछ के पास बेफिक्री है लेकिन कई महात्मा चिंतित दिखे कहने लगे क्षिप्रा में जल नहीं रहा . नर्मदा जल डालकर उसे क्षिप्रा कह रहे हैं। कुछ अखाड़ों में हो रही लड़ाईयों से खफा मिले , कुछ आंधी तूफ़ान से हुए नुकसान को महाकाल का कोप बताते मिले। सबकी सुनता- सुनता निनौरा अा गया। वैचारिक कुम्भ में शिरकत का आमंत्रण था। वहां प्रवचनों की बहार थी। प्रधान मंत्री के साथ कई बड़ी हस्तियां थीं। मंच पर श्रीलंका के राष्ट्रपति और विपक्ष के नेता दोनों मौजूद थे। उन्हें साथ देखकर कहा गया कि देखिये कुम्भ सबको जोड़ता है । मैंने सोचा कि काश अपने देश की संसद भी कुम्भ स्नान कर लेती तो पक्ष विपक्ष मिलकर कुछ सार्थक कर लेते। लौटते वक़्त स्टेशन पर बहुत भीड़ थी कोई गाड़ी आती तो कई लोग चढ़ जाते पर कई लोग छूट जाते। अधिकांश लोग साधारण परिस्थिति के थे पर गाड़ी छूट जाने पर वे दुःखी न होकर गीत गाते हुए अगली गाड़ी का इंतज़ार कर रहे थे। मेरी गाड़ी में वातानुकूलित डिब्बे के प्रवेश द्वार पर कोई संघर्ष नहीं था। मैंने ट्रैन में बैठकर मन ही मन प्रार्थना दोहरायी -
हे मेरे महाकाल ! मेरे देश के अनेक लोगों को अब तक कोई गाड़ी नहीं मिली है उन्हें तुम गंतव्य तक पहुंचना अवश्य ..... अवश्य !
- अशोक जमनानी