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मंगलवार, जनवरी 03, 2017

चेहरे : कविता : अशोक जमनानी



चेहरे 

एक चेहरा नहीं है मेरा
बहुत सारे हैं चेहरे मेरे
दोस्तों से मिलते वक़्त
और मिलते वक़्त सियासी लोगों से
नहीं रहता चेहरा एक-सा
किसी सरकारी मुलाज़िम को रिश्वत देते वक़्त 
और बच्चों के लिए चाकलेट खरीदते वक़्त 
एक-सा चेहरा कैसे रखा जा सकता है 
किसी की बहुत याद आती है
या नहीं होता कभी ज़ेब में एक भी सिक्का
तब चेहरा न जाने क्यों बदल जाता है
सच कहूं मुझे डर भी लगता है कभी बहुत
और यह भी सच है कि सच से ज़्यादा झूठ बोलने होते हैं
जब कोई ईर्ष्या के कारण आलोचना करता है और मैं विनम्र बनता हूं
मन ही मन यह सोचते हुए कि मैं इसे चार जूते क्यों नहीं जड़ देता
ऐसे में भी चेहरा बदल ही जाता है  
जब मैं मंच पर चुटकुले को कविता कहता हूं
और कविताओं की किताब यह सोचकर नहीं छपवाता कि बिकेगी नहीं
चेहरे पर विद्रूप रूप होता है न  
कहां तक सुनाऊं किस्से चेहरा बदलने के
वैसे भी मैं किसी मंदिर में स्थापित देव प्रतिमा तो हूं नहीं
कि जिसका चेहरा उकेर दे शिल्पी एक बार
तो बना रहे भाव वही सदियां होती जाएं पार
मुझसे मिलो तो यही सोचकर मिलना
कि मेरे बहुत से चेहरे हैं
यकीन न हो तो मेरे घर की दीवारों से पूछना
वो बतायेंगी कि यहां 
देवता नहीं रहते  ...
- अशोक जमनानी 




 
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