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गुरुवार, जनवरी 08, 2015

नर्मदा यात्रा : 38 : बगरई


नर्मदा यात्रा : 38 : बगरई 




बगरई वैसे तो नर्मदा तट से जुड़ा एक छोटा-सा गाँव ही है लेकिन यह गाँव इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह शिल्पियों का गाँव है। कलचुरि राजवंश ने शिल्पियों को प्रश्रय दिया तो शिल्पियों ने भी इस कला के नए प्रतिमान रचे। कलचुरि राजवंश समाप्त हुआ तो सबसे अधिक संकट भी प्रतिमाओं और मूर्तियों पर आया। उस कालखंड में आक्रांताओं से बचाने के लिए अधिकांश प्रतिमाएं ज़मीन में दबा दी गयीं। कालांतर में यही प्रतिमाएँ खेतों और मैदानों में मिलने लगीं लेकिन यह समय उनके लिए और बड़े  संकट का सिद्ध हुआ। आज़ादी के बाद अपनी सांस्कृतिक धरोहरों के गौरव से अपरिचित लोगों ने उस समय बन रहे जबलपुर मार्ग के लिए गिट्टियां  उपलब्ध कराने के लिए हज़ारों या शायद लाखों मूर्तियों को तोड़कर गिट्टियां बनायीं और भारत की अत्यंत समृद्ध विरासत सड़क में हमेशा के लिए दफ़्न हो गयी।
बगरई में हार्ड मार्बल से प्रतिमाएँ बनायी जाती हैं। हार्ड मार्बल को तराशना बेहद मुश्किल काम होता है एक छोटी सी चूक आकृति को बुरी तरह बिगाड़ सकती है। सॉफ्ट मार्बल से बनने वाला सजावटी सामान भी इस क्षेत्र में खूब बनता है और छोटे बच्चे भी बहुत अच्छे शिल्पी बनने की संभावना की ओर बढ़  रहे हैं।
यदि हम अपनी सांस्कृतिक धरोहरों का मूल्य जानते तो उन्हें पत्थर समझकर सड़क में दफ़्न न करते। वैसे तो कला अमूल्य है लेकिन मूल्य की भी बात करें तो उन गिट्टी बनायीं गई  मूर्तियों का मूल्य इतना था कि उनसे मिली राशि पूरे मध्य प्रदेश की सड़कें कई बार बनवा देती। लेकिन हम स्वयं ही अपनी धरोहरों को पत्थर मान बैठे हैं तो कोई क्या करे। नर्मदा तट से जुड़ा बगरई सदियों पुरानी कलात्मकता की अपनी परम्परा को आज भी आगे बढ़ा रहा है। 
नर्मदा यहां बहती है और शायद इन शिल्पियों से कहती है कि तराशते रहो यूँ ही क्योंकि तराशा गया इसलिए संगे मर्मर संगे मर्मर है वर्ना तो वो भी पत्थर ही  था …....    

- अशोक जमनानी     




 
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