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बुधवार, जनवरी 07, 2015

नर्मदा यात्रा : 37 : चौंसठ योगिनी



नर्मदा यात्रा : 37 : चौंसठ योगिनी 






धुआंधार के पास ही चौंसठ योगिनी का  विख्यात मंदिर है। कभी नर्मदा का प्रवाह ठीक इसके पास से बहा करता था लेकिन बाद में कुछ दूर हो गया। यहाँ स्थित अधिकांश प्रतिमाएँ मुग़ल काल में खंडित की गयी हैं  परन्तु उनका शेष सौंदर्य भी कम अद्भुत नहीं है। यह मंदिर कलचुरि वंश के समापन से ठीक पहले का  एक बेमिसाल कृतित्व है। कलचुरि राजवंश का आरंभ सहस्त्रबाहु से होता है और त्रिपुरी शाखा  वामदेव राज से शुरू होकर अजय सिंह तक आते-आते कई सदियों का इतिहास समेटती है। इस अत्यंत प्रभावी राजवंश के एक शासक कलचुरि कर्ण का जीवन महाभारत के कर्ण की तरह शूरवीरता एवं उदारता की अद्भुत दास्तां है। अमरकंटक में  उद्गम कुण्ड के पास के मंदिर इन्हीं कर्ण द्वारा बनवाये गए थे। कर्ण के शासनकाल में यह राजवंश अपने उत्कर्ष पर था  पर उसके बाद यह राजवंश अपने अंतिम अध्याय लिखने लगा। कर्ण के पौत्र गयाकर्ण की पत्नी अल्हणदेवी ने  अपने गुरु  आचार्य रुद्रराशि के लिए इस मंदिर का निर्माण करवाया। राजवंश का पराभव काल था और  आचार्य रुद्रराशि तंत्र की योगिनी कौल शाखा के प्रसिद्ध तांत्रिक थे। अल्हण देवी की श्रद्धा राज्य की गिरती दीवारों के मध्य तंत्र-मंत्र से जुड़ी पर राजवंश कुछ समय बाद ही इतिहास बन गया।       
आश्चर्य की बात यह है कि जब राजवंश का पराभव हो रहा था तब शिल्प अपने उत्कर्ष की गाथा लिख रहा था। चौंसठ योगिनी की प्रतिमाएं शिल्प कला की  अद्भुत मिसाल हैं। आसन से लेकर अलंकरण तक न जाने कितनी कहानियां इनमें छुपी हुईं हैं और सदियों के बाद भी ये कालजयी प्रतिमाएं आकर्षण का केंद्र बनी हुईं हैं।
राजनीति और कला में यही फर्क है।
साम्राज्य  शीर्ष पर पहुंचकर समाप्त हो जाते हैं।
कला शीर्ष पर पहुंचकर शाश्वत हो जाती है।
राजनीति आगे बढ़ती है तो गिरती है और गिराती है।
कला आगे बढ़ती है तो उठती है और उठाती है … और नर्मदा ?
 नर्मदा सदियों से चलते इस खेल को देखकर मुस्कराती है।
- अशोक जमनानी   




 
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