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रविवार, फ़रवरी 14, 2016

बहो निरंतर बहो नर्मदा ..... .





नर्मदा जयंती पर एक कविता कल्पजयी नर्मदा के नाम ..
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बहो निरंतर बहो नर्मदा कल्प नहीं बाधा प्रवाह में
सृष्टि के उत्थान पतन की चिर साक्षिणी शेष रहे
तपो भूमि हैं तट तेरे पर तप के सांचे कौन ढलेंगे
राजनीति के शकुनि मिलकर तेरे तट पर दांव चलेंगे
संस्कृतियों के अर्थ व्यर्थ हैं कहां हृदय ये जहां पलेंगे
जो अभिषेक करेंगे वो ही हाथ तुझे दिन रात छलेंगे
सहो निरंतर सहो नर्मदा घात नहीं बाधा प्रवाह में
पाप पुण्य के भेद अभेद की चिर साक्षिणी शेष रहे
काल प्रलय घनघोर गहन है दिग्दिगंत तक घोर गहन
लुप्त लुप्त जल सुप्त सुप्त जल तृषा तृषित है शेष दहन
दग्ध दग्ध दिक् दिग्दिगंत है दिग्दिगंत दिक् दिग्दिगंत
घट घट घटित घटित है घट घट अंत अंत बस अंत अंत
रहो न तब भी रहो नर्मदा प्रलय नहीं बाधा प्रवाह में
दृश्य अदृश्य के लोप अलोप की चिर साक्षिणी शेष रहे
हे शुभांग देही शुभम करोति इदं वरेण्य पंथ धर्मदा
शुभम वरेण्य सदा सर्वदा नर्म ददाति पुण्य नर्मदा
हर निनाद शं शं निनाद शंभु निनाद जलधार सर्वदा
शिव स्थापन हृदय हृदय हर हर हर हर मातु नर्मदा
कहो मंत्र शिव कहो नर्मदा काल नहीं बाधा प्रवाह में
मानवता के अस्त उदय की चिर साक्षिणी शेष रहे
- अशोक जमनानी

 
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