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रविवार, जून 14, 2015

कहानी : टिकिट : - अशोक जमनानी


उर्वशी में प्रकाशित कहानी : टिकिट 



कहानी : टिकिट  :  अशोक जमनानी  

एक - दो - तीन -चार - पांच - छह - सात   … 
चौथी बार सिक्के गिनने के बाद, गोकुल ने सभी सिक्कों को उलट- पलटकर देख लिया ; शायद कोई सिक्का दो रुपये वाला हो। लेकिन उसकी सूख रही उम्मीद को ज़रा-सा भी पानी न मिला और चौथी बार की गिनती पूरी होते-होते वो भी पूरी तरह सूख गयी पर फिर भी न जाने क्या सोचकर गोकुल ने   एक बार फिर सिक्के  गिने;
 एक - दो - तीन -चार - पांच - छह - सात   … 
हर बार की  तरह इस बार भी सिक्के सात ही निकले तो गोकुल के चेहरे पर उदासी ज़रा और गहरी हो चली। कुछ देर चुपचाप बैठे रहने के बाद उसने सिक्के समेटकर जेब के हवाले किये और तेज़ क़दमों से बस अड्डे की ओर चल पड़ा। 
शाम ढल चुकी थी लेकिन आते हुए अंधरे में अभी थोड़ा-सा जाता हुआ उजाला मौज़ूद था। बस अड्डे की ओर जाने वाली सड़क पूरी तरह अकेली थी शायद इसीलिए खोयी-खोयी, सोयी-सोयी सी लग रही थी। गोकुल के क़दमों का साथ पाकर वो कुछ देर के लिए जागी लेकिन गोकुल के आगे बढ़ते ही  फिर से सो गयी। शायद उसे मालूम था कि अब सुबह तक कोई और यहाँ से नहीं गुज़रेगा। वैसे भी सड़क तो सड़क ठहरी उसने आते-जाते पाँव देखे हैं , चलते-रुकते पहिये देखे हैं, गुज़रते कारवां देखे हैं पर ठहरा तो सड़क पर कोई भी नहीं। जो कभी कोई ठहरा भी है तो किसी मज़बूरी के तार ने ही उसे रोका है वर्ना ठहराव के रिश्ते सड़कों के नसीब में कहाँ  होते हैं। बस अड्डे की ओर जाती छोटी सड़क का सफ़र ख़त्म हुआ और बड़ी सड़क पर चलकर गोकुल बस अड्डे के पास बने ढाबे पर जाकर रुका तो उसे देखकर ढाबे का मालिक मुस्कराया। रोज़ शाम गोकुल खाना खाने यहीं आता था इसलिए ढाबे का  मालिक  मुस्कराहट परोसने में बहुत उदार दिखा। 
" क्यों गोकुल ,आज तो शनिवार है ,  आज तो तुम  यहां खाना खाओगे नहीं ? "
" हाँ सेठ, आज तो घर पर ही खाऊंगा। " 
छोटा-सा उत्तर देकर गोकुल कुछ दूर पड़ी खटिया पर जाकर बैठ गया और दूर तक जाती सड़क को निहारने लगा तो कुछ ही देर में अतीत और वर्तमान की न जाने कितनी तस्वीरें उसके ज़ेहन में उभरने लगीं। कुछ ही वक़्त तो बीता है उसके हाथों की लकीरों का रंग बदले हुए। अपनी मर्ज़ी का मालिक था गोकुल। अपने छोटे से खेत में सब्जियां उगाकर शहर बेचने जाया करता था।  खेत छोटा था  पर मेहनत का मर्म मिट्टी उन दिनों समझती थी और खेत इतना तो दे ही देता था कि गोकुल की ज़िंदगी बेफ़िक्र बीत रही थी। लेकिन किसान की मुस्कराहट के सौ दुश्मन ठहरे। इस बरस मौसम के के रंग-ढंग ऐसे आवारा हुए कि सब जुड़ा-जमा बिगड़ गया।  पहले तो बारिश समय पर नहीं आयी और  जब आयी तो ऐसी बरसी की खेत में पड़ा बीज पैदा होने से पहले ही दम तोड़ गया। दोबारा बीज लाने के लिए गोकुल ने खेत गिरवी रखे; लेकिन साहूकार से रुपये लेकर घर लौटा तो किस्मत को उसका यह जतन बिलकुल नहीं सुहाया।  वैसे भी मुसीबत के दो नहीं बीस हाथ होते हैं और जब वो गरीब  दामन पकड़ती है तो उसे तार-तार करके ही छोड़ती है। उसी दिन गोकुल की घरवाली बंजारी आँगन में ऐसी गिरी कि शहर के अस्पताल में उसका इलाज़ करवाने में ही उधार ली हुई पूरी रकम खर्च हो गयी। और फिर धीरे-धीरे घर के चूल्हे की आग की उम्र  कम होने लगी और एक रात ऐसी भी आयी कि चूल्हा बेजान जिया। अगली सुबह गोकुल गाँव से शहर मज़दूर ले जाने वाले ठेकेदार के पास गया तो उसने कागज़ पर दस्तखत करवाये कि गोकुल तीन महीने तक काम छोड़कर नहीं जायेगा। गोकुल ने तीन महीने की मज़दूरी का आधा हिस्सा बयाने में माँगा तो ठेकेदार मुस्कराया। उसने तीन महीने की आधी मज़दूरी बयाने में दे तो दी पर दस टके महीने के हिसाब से ब्याज काट  लिया। जो बचा उसे लेकर गोकुल घर की ओर चला तो रास्ते  में ही  साहूकार ने उसमें से अब तक का  ब्याज  वसूल लिया।   बाकी जो बचा वो गोकुल ने बंजारी के हाथ पर रखा और अगले दिन जब उसने शहर के पास बन रही इमारत में मज़दूरी शुरु की तो उसे एहसास हुआ कि दूसरों की ज़मीन पर बीता  दिन कितना लम्बा होता है। पर फिर भी ज़िंदगी की दरकती दीवार यह मामूली-सा सहारा पाकर  गिरने से बच गयी और वक़्त की स्याही  इस दीवार पर कुछ नया लिखने की कोशिश करने लगी।   सुबह से शाम होते-होते बदन टूटने लगता लेकिन शाम को आधी मज़दूरी पाकर गोकुल के मन में भरोसा जुड़ने लगता कि वो शनिवार को गाँव जायेगा तो अगले हफ़्ते का राशन उसके साथ होगा। शाम को ढाबे पर जाकर खाना खाने के बाद वो बचे हुए रुपयों से पास की दुकान से बंजारी का बताया सामान खरीद लेता। शुक्रवार को वो शनिवार की मज़दूरी भी ले लेता था क्योंकि उस दिन हाट भरता था। इन सबके बाद शनिवार को उसके पास कभी भी  चार-पांच रुपयों से अधिक नहीं बचते थे। शहर से गाँव जाने वाली बस का किराया दस रूपये था लेकिन उसके पास दस रूपये नहीं रहते थे इसलिए बस के कंडक्टर ने पांच रूपये में बस के पीछे लगी सीढ़ी पर लटककर यात्रा करने की इज़ाज़त दे रखी थी। हफ़्ते भर की कड़ी मेहनत गोकुल का बदन तोड़ देती थी; उस पर शनिवार को जब वो बस की सीढ़ी पर लटककर गाँव जाता तो सड़क का हर एक गड्ढा उसे रुला देता। लेकिन घर पहुंचकर उसकी सारी उदासी दूर हो जाती। सोमवार की सुबह वो सूरज उगते ही शहर की और पैदल चल पड़ता। पंद्रह किलोमीटर की यात्रा बीती दो रातों की यादों की गंध का पीछा करते-करते कब पूरी हो जाती गोकुल जान ही नहीं पाता था। शुरुआत में गोकुल ने शनिवार को लौटते वक़्त भी पैदल जाने के बारे में सोचा था लेकिन थोड़ी दूर चलकर ही वो लौट आया था। सुबह के उजाले में जो सफ़र आसान था वही सफ़र रात के अँधेरे में बेहद मुश्किल था।                          गोकुल को अक्सर अपने पुराने दिन याद आते जब वो सब्जी की टोकरियां लेकर शहर जाता था। उन दिनों वो बस के कंडक्टर को टिकिट के अलावा बीस रुपये सब्जी रखने के लिए दिया करता था। कंडक्टर भी उसके लिए सबसे आगे वाली सीट रोककर रखता था और लौटते वक़्त बची हुई सब्जी पाकर तो वो गोकुल को बीड़ी भी पिलाता और गोकुल की पसंद के गाने भी बजाता। लेकिन अब गोकुल के पास  अधिक देना तो छोड़ो टिकिट के भी पूरे दाम नहीं रहते। हर बार बस में पीछे लटककर जाते वक़्त वो मन ही मन तय करता था कि अगली बार वो किसी न किसी तरह दस रुपये बचा लेगा और आराम से बस में भीतर बैठकर गाँव जायेगा। लेकिन इस बार भी उसके पास केवल सात रुपये थे जिन्हें वो कई बार गिन चुका था । ढाबे के  बाहर बैठकर वो यही सोच रहा था कि तीन रुपये का इंतज़ाम कैसे हो ? अचानक उसके मन में ख़याल आया कि क्यों न वो ढाबे वाले सेठ से तीन रुपये उधार ले ले। अगले सप्ताह वो तीन रुपये चुका  देगा। फिर गोकुल ने मन ही मन हिसाब लगाया कि अगर वो रोज़ शाम को खाने के बाद पचास पैसे अधिक दिया करेगा तो सेठ की पूरी उधारी बराबर हो जायेगी। यह छोटा सा गणित गोकुल को खुश कर गया। वैसे भी ग़रीब का गणित छोटा ही होता है बड़े गणित तो बड़े लोगों के होते हैं। यह छोटा-सा जोड़-घटाना गोकुल के चेहरे पर मुस्कान बिखेर गया और इतने दिनों बाद टिकिट खरीदकर बस  में भीतर बैठने का सुख आने से पहले ही उसके चेहरे पर आ गया। गोकुल ने मुस्कराते हुए ढाबे मालिक की ओर कदम बढ़ाये ही थे कि उसने देखा कि पास की खटिया पर बैठा एक बूढ़ा अचानक नीचे गिर पड़ा। गोकुल तेज़ी  से उसकी ओर बढ़ा और  उसे खटिया पर लिटाकर उसने ढाबे के मालिक को आवाज़ दी।

" सेठ, ये कौन है ? "
" क्या पता कौन है ! सुबह से यहीं बैठा है। कह रहा था इसका बेटा आने वाला है। भला आदमी दिख रहा था इसलिए मैंने इसके बैठने पे कोई एतराज़ नहीं किया। " 
" इसने सुबह से कुछ खाया-पिया है या नहीं ? " 
" नहीं खाया-पिया तो कुछ नहीं। " 
" हद करते हो सेठ जी ! एक बूढ़ा आदमी सुबह से बिना कुछ खाये-पिये यहाँ बैठा रहा और तुमने बिलकुल ध्यान नहीं दिया। "
" लो सुनो , भाई मैंने कौन- सा यहाँ धर्म का ठेका ले रखा है। छोटा-सा तो मेरा ढाबा  है।  अगर सारे भूखे-नंगों का ध्यान  रखूंगा तो ख़ुद भी भूखा मर जाऊंगा।"
ढाबे का मालिक भुनभुनाता हुआ लौट गया तो गोकुल ने बूढ़े के चेहरे पर पानी के छींटे मारे। कुछ देर बाद बूढ़े ने आँखे खोली तो गोकुल ने  उसे पानी पिलाया और फिर तेज़ी से चलकर वो सेठ के पास गया और उसके सामने सात रुपये के सिक्के रख दिए। 
"  सेठ. ये  सात रुपये रक्खो और दस रुपयों में दो रोटियों के साथ जितनी सब्जी आती हो उतनी दे दो। बाकी के तीन रुपये घर से लौटकर चुका दूंगा। " 
सेठ को तीन रुपयों के उधार पर एतराज़ नहीं हुआ और उसने एक प्लेट में दो रोटियों के साथ थोड़ी-सी सब्जी रखकर गोकुल की ओर बढ़ायी तो गोकुल उसे लेकर बूढ़े के पास आ गया। 
" कुछ खा लो बाबा , सुबह से भूखे हो इसीलिए  चक्कर आ गया होगा। " 
बूढ़े ने कृतज्ञता  का पूरा संसार अपनी आंखों में भरकर गोकुल की ओर देखा। 
" मेरा बेटा बस आने ही वाला है। " 
" ठीक है तब तक कुछ खाकर आराम कर लो फिर उसके साथ चले जाना। " 
गोकुल ने उसे आश्वस्त किया और फिर तेज़ी से गाँव जाने वाली सड़क पर आ गया। अँधेरा गहरा हो चला था और अब उसके पास एक रुपया भी नहीं था। टिकिट खरीदकर बस में भीतर बैठना तो दूर अब तो वो बस की  सीढ़ी पर लटककर भी नहीं जा सकता  था। अंधेरे में सड़क के किसी गड्ढे  में गिरने पर क्या हालत हो सकती है यह गोकुल जानता था इसलिए वो एक एक कदम सावधानी से रख रहा था। थोड़ी दूरी पार करने में ही बहुत वक़्त लगा तो गोकुल की हिम्मत टूटने लगी और वो निराश होकर सड़क किनारे बैठा ही था कि दूर से आती बस की रोशनी देखकर वो न जाने क्या-क्या सोचकर रो पड़ा। कुछ ही देर में बस पास आ गयी तो उसने आँखें पोंछीं तब तक बस उसके बिलकुल पास आकर रुक चुकी थी। 
 " क्यों भाई, आज बस  में नहीं चलना है क्या ?"    
" नहीं, आज मैं पैदल ही जा रहा हूँ। " 
" आज देने के लिए किराया नहीं है  इसलिए पैदल जा रहे हो। " 
" तुम्हें कैसे पता ? " 
गोकुल ने हैरानी के साथ कंडक्टर की ओर देखा तो वो मुस्कराया। 
" ढाबे वाले ने बताया। आ जाओ, और जब तक मैं इस बस में नौकरी कर रहा हूँ तुम्हारे पास टिकिट खरीदने के पैसे हो या न हों मैं तुम्हें भीतर बिठाकर ही ले चला करूंगा। " 
कंडक्टर बात सुनकर गोकुल हैरान तो हुआ  पर फिर वो बस में चढ़ा तो कंडक्टर ने उससे कहा कि पीछे एक सीट खाली है वो वहां जाकर बैठ जाये। गोकुल पीछे पहुंचा तो वहां वही बूढा बैठा था। उसने गोकुल को देखा तो उसके चेहरे पर  मुस्कराहट खिल उठी। 
" ये जो बस का कंडक्टर है न वो  मेरा बेटा है। "  
बस आगे बढ़ी तो बूढ़े के चेहरे पर मुस्कराहट बहुत भली हो चली और उसने जब गोकुल की ओर देखा तो गोकुल के मन में भरोसा जागने लगा कि उसके पास टिकिट है  ……  
- अशोक जमनानी 

 
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